सनतान धर्म से प्राप्त प्रेरण – श्रीमद भगवद गीता
‘सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘हमेशा बना रहने वाला’
‘सनातन’ का अर्थ है – शाश्वत या ‘हमेशा बना रहने वाला’, अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। हिन्दू धर्म का वास्तविक और सही नाम सनातन धर्म है। यह गन्तव्य सनातन आकाश या नित्य चिन्मय अक्षाश कहलाता है। इस संसार में हम पाते है कि प्रत्येक पदार्थ छणिक है। यह उत्पन्न होता है, कुछ काल तक रहता है, कुछ गौड़ वस्तुए उप्पन्न करता है, क्षीण हो जाता है और अंत में लुप्त हो जाता है। भौतिक संसार का यही नियम है, चाहे हम इस सरीर का दृष्टांत ले, या फल का या किसी अन्य वास्तु का। किन्तु इस छणिक संसार से परे एक अन्य संसार है, जिसके विषय में हमें जानकारी है। उस संसार में अन्य प्रकृति है, जो सनातन है। जिव को भी सनातन बनाया गया है और ग्यारहवे अध्याय में भगवन को भी सनातन बताया गया है। हमारा भगवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है और चूँकि हम सभी गुणात्मक रूप से एक है।
सनातन धाम, सनातन भगवन, तथा सनातन जिव अतएव भगवदगीता का सारा अभिप्राय हमारे सनातन धर्म को जागृत करना है, जो कि जिव कि शाश्वत वृत्ति है। हम अस्थायी रूप से विभिन्न कर्मो में लगे रहते है, किन्तु हम इन क्षणिक कर्मो को त्याग कर परमेश्वर द्वारा प्रस्तावित कर्मो को ग्रहण कर ले, तो हमारे ये सारेे कर्म शुद्ध हो जाए। यही हमारा शुद्ध जीवन कहलाता है।
परमेश्वर तथा उनका दिव्या धाम, ये दोनों ही सनातन है और जीव भी सनातन है। सनातन धाम में परमेश्वर तथा जीव की संयुक्त संगती ही मानव जीवन की सार्थकता है। भगवान् जीवो पर अत्यंत दयालु रहते है, क्योकि वे उनके आत्मज है। भगवान् श्री कृष्ण ने भगवदगीता में घोषित किया है सर्वेनिषु…. अहं बीजप्रद: पिता – मै सबका पिता हूँ। निसंदेह अपने अपने कर्मो के अनुसार नाना प्रकार के जीव है, लेकिन यहाँ पर श्री कृष्ण कहते है कि वे उन सबके पिता है।
अतएव भगवान् उन समस्त पतित बुद्ध्जीवो का उद्धार करने तथा उन्हें सनातन धाम वापस बुलाने के लिए अवतरित होते है, जिससे सनातन जीव भगवान की नित्य संगती में रहकर अपनी सनातन स्थिति कप पुनः प्राप्त कर सके।
भगवान स्वयं नाना अवतारों के रूप में अवतरित होते है या फिर अपने विश्वस्त सेवको को अपने पुत्रो को पर्सदो या आचार्यो के रूप में इन बुद्धिजीवो का उद्धार करने के लिए भेजते है। अतएव सनातन धर्म किसी साम्प्रदायिकधर्म पद्धति का सूचक नहीं है। यह तो नित्य परमेश्वर के साथ नित्य जीवो के कनित्य कर्म का सूचक है। जैसा कि पहले कहा जा चूका है, यह जीव के नित्य धर्म को बताता है। श्रीपाद रामानुजाचार्य ने सनातन धर्म कि व्यख्या कुश इस प्रकार कि है, “वह जिसका न आदि है और न अंत “अतएव जब हम सनातन धर्म के विषय में बाते करते है तो हमें श्रीपाद रामानुजाचार्य के प्रमाण के आधार पर यह मान लेना चाहिए कि इसका न आदि है न अंत। अंग्रेजी का रिलीजन शब्द सनातन धर्म से थोडा भिन्न है।
रिलीजन से विश्वास का भाव सूचि होता है और विश्वास परिवर्तित हो सकता है। किसी को एक विशेष विधि में विश्वास हो सकता है और इस विश्वास को बदलकर दूसरा ग्रहण कर सकता है, लेकिन सनातन धर्म उसका सूचक है जो बदला नहीं जा सकता। उदाहरणार्थ न तो जल से उसकी तरलता विलग कि जा सकती है, न अग्नि से ऊष्मा विलग कि जा सकती है, ठीक उसी प्रकार जीव को उसके नित्य कर्म को विलग नहीं किया जा सकता। सनातन धर्म जीव का शाश्वत अंग है। अतएव जब हम सनातन धर्म के विषय में बाते करते है तो हमें श्रीपाद रामानुजाचार्य के प्रमाण को मानना चाहिए कि सनातन का न तो आदि है न अंत। जिसका आदि या व अंत न हो, वह सांप्रदायिक नहीं हो सकता क्योकि उसे किसी सीमा में बाँधा नहीं जा सकता।
जिनका सम्बन्ध किसी संप्रदाय से होगा वे सनातन धर्म को साम्प्रदायिक मानने कि भूल करेंगे, किन्तु यदि हम इस विषय पर गंभीरता से विचार करे और आधुनिक विज्ञानं के प्रकाश में सोचे तो हम सहज ही देख सकते है कि सनातन धर्म विश्व के समस्त लोगो का ही नहीं अपितु ब्रम्हांड के समस्त जीवो का है।