गाँव कि वो पाठशाला हमें आज भी याद है जहा हम पढ़ने जाया करते थे। बहुत ही अनमोल पल थे वो जो हम सभी अपने गाँव के पाठशाला में पढ़ने में बिताये। वो एक सरकारी पाठशाला हुआ करता था और आज भी चल रहा है। इसमे मजे कि बात ये है कि इसी पाठशाला में हमारे पिताजी और बड़े भाई बहन भी पढ़ाई कर चुके हैं और जिस शिक्षक ने हमारे पिताजी और बड़े भाई बहन को पढ़ाया था, उन्होंने ने ही हमे भी पढ़ाया। इसीलिए मास्टर जी हमे भी अच्छे से जानते थे।
पाठशाला हमारे गाँव से एक-दो किलोमीटर दूर स्थित होती थी। इस पाठशाला में आस पास के गाँव के सभी बच्चे पढ़ने जाते थे। यह पाठशाला एक गाँव के मध्य में सड़क के किनारे सटा हुआ होता था। उस पाठशाला में कुछ कमरे हुआ करते थे कुछ एक तरफ और कुछ दूसरी तरफ और बीच में काफी जगह हुआ करती थी और कुछ बड़े बड़े आम के पेड़, नीम के पेड़, बरगद हुआ करते थे। एक हैण्ड पंप भी हुआ करता था पाठशाला में।
गाँव में बिजली कि समस्या आम बात थी और उस समय में बिजली का होना न के बराबर था इसलिए हम सभी बच्चे पेड़ क निचे ही बैठकर पढ़ाई करते थे। वह समय बहुत ही अच्छा था, हम और हमारे भाई बहन उस पाठशाला में एक साथ पढ़ने जाया करते थे। सुबह के नौ बजे से लेकर शाम पांच बजे तक पाठशाला चलती थी और दोपहर में एक घंटे कि खाना खाने कि छुट्टी मिलती थी।
उस समय में आज कि तरह कि पाठशाला कि यूनिफार्म नहीं हुआ करते थे, न ही जूते और न ही आज के ज़माने के कॉपी किताब और पेन पेंसिल फिर भी जीवन बहुत सादा और आनंदमय था। बहुत अच्छा और सुन्दर समय था वो हमारे बचपन का। उस समय में सिर्फ जरुरी चीजे ही सिखाई जाती थी जिसकी हमें सच में जरुरत होती है और वो सिखा हुआ ज्ञान हमें पुरे जीवन भर कम आता है और सबकुछ हमें मुह्जबानी याद रहती थी। और सब कुछ इतना स्पष्ट पढ़ाया जाता था कि दुबारा उसे घर पर आने के बाद दुहराने कि जरुरत नही पड़ती थी और न ही किसी कोचिंग या टयूसन कि में जाने कि आवश्यकता पड़ती थी।
किसी प्रकार का कोई भी आडम्बर नहीं था और न ही भेदभाव था, जिसकी जैसी अवस्था है वो उसी अवस्था में पाठशाला में पढ़ाई करने आ जाते थे पाठशाला के समय पर। उस समय केवल शिक्षा प्राप्त करने कि इच्छा से आते थे, और कुछ बच्चे तो घर पर मार खाने से बचने के लिए और कुछ घर वालो के डर से पाठशाला में आते थे और मौका मिलते ही पाठशाला से भाग भी जाते थे, क्योकि पाठशाला कि कोई घेराव नहीं होता था और न ही कोई चपरासी जो इनपर ध्यान दे। हर कक्षा में कुछ शरारती बच्चे तो होते ही है, इसलिए बहुत मौज मस्ती भी होती थी। और वो शरारती बच्चे मौका देखकर भाग जाते थे और कुछ देर बाद घूम कर वापस भी आ जाते थे।
उस पाठशाला में एक-दो ही मास्टर हुआ करते थे जो पुरे पाठशाला के बच्चो को पढ़ाते थे। हम सभी पेड़ कि छाव में बैठकर पढ़ाई करते थे, सभी कक्षा के बच्चे थोड़ी थोड़ी दूर पर बैठते थे इसलिए सब एक दुसरे को देख पाते थे खुला वातावरण रहता था। उस समय जब हम पाठशाला के लिए जाया करते तब हमारे साथ हमारे भाई बहन भी रहते थे। हम गाँव के रास्ते होते हुए पाठशाला में जाते थे रास्ते में खेत कि पगडंडियो से गुजरना पड़ता और बगीचे से भी जाना पड़ता, इस तरह हम घूमते फिरते मौज मस्ती करते हुए रोज पाठशाला जाते और आते थे।
हमारे पास एक लकड़ी कि पटिया, चोक, कांच की एक छोटी सी शीशी और शीशी के अंदर एक मोटा सा धगा भी रखते थे जो पटिया पर लाइन खीचने के लिए काम आता था और एक बोरा बिछा कर बैठने के लिए। लिखने के लिए राश्ते में से शरपत की लकड़ी भी तोड़ लेते थे रोज। बोरा जिसको बिछा कर हम कक्षा में बैठते थे और पटिया जिसको हम दोनों तरफ से काला रंग करते थे टौर्च कि बैटरी के अंदर के काले पदार्थ से, जिससे कि पटिया पे सफ़ेद चोक से लिखे तो अच्छा दीखता है।
बहुत ही सादा सुंदर और स्वस्थ जीवन था उस समय किसी चीज कि कोई परेशानी नहीं थी और सब मिलकर पढ़ते थे।